Saturday 22 August 2015

ज़िंदगी-खेल या पहेली?

मैं अक्सर सोचता हूँ इन रातों  में
क्या आते हैं लोग जाने क लिए ?
तकदीर को आज़माने के लिए
या शायद
ज़िन्दगी में कोई रूठी हुई वजह को मनाने के लिए
मकसद होता है क्या हर बात के पीछे ?
क्या हँसीं भी आती है मुझे मुरझाने के लिए ?
खुद ही खुद में सिमट के रातों में अपने आप में छुप जाने के लिए,

मैं तो पाता हूँ अकसर अपनी सोच में भी खुद को तनहा
जब की दूसरों के लिए तो कईं  होते हैं
अंधेरों को उनके रोशनी से भर जाने के लिए ,
मैं सोचता हूँ ज्यादा ?
या उदासी एक इत्तेफ़ाक़ है?
मेरी नहीं अकेले की,
शायद हर किसी की दबी आवाज़ है ।

मेरी खामोशियाँ मुझसे बातें करती हैं
चीखकर मुझपे मुझमें ज़िन्दगी भरने को मरती हैं ,
पर साँसों में कुछ अजीब सी नमी है
जैसे अमावस्या की रातों में चांदनी की कमी है।

प्यारा एहसास कोई हो अगर
वो रह-रह महसूस होता है ,
जैसे ही उसे छूना शुरू करदूँ
मेरे हाथों से रेत सा बहता है  ।

आख़िर हर लम्हा ज़िन्दगी का मुझसे क्या कहता है?
ये सोचता हूँ जब मैं रातों में
इन धीमी सी बरसातों में,
क्या पानी ही हैं ये बूँदें?
या हैं कोई इशारा?
उपरवाले का आख़िर है पहेली सा खेल सारा
फँस चुका हूँ जिसमें अब बुरी तरह मैं बेचारा ||

-भव्या  गोयल 

Saturday 31 January 2015

फ़ीकापन

जिस दिन लफ़्ज़ों से नकाब उतर जायेगा 
शायद हर अक्षर  लज्जा से मर जाएगा ,

यूँ तो कुछ कहने की आदत नहीं मुझे 
पर लिख दिया तो खून के आंसू कलम बहाएगा ,

 हर तस्वीर  को जिसे मैने सोचा है
रिश्तों को जिस धागे में पिरोया है,
वो काँप  कर , डगमगा कर 
खुद  चूर-चूर भिखर जायेगा ,


मेरे लाख सिलने पर भी  
तितर-भितर हो जाएगा ,
जुड़ना ना चाहेगा अक्षर वो 
उम्मीद ऐसी खो जायेगा,

टूट-टूट ही था जुड़ना सीखा जिसने 
वो ज़िंदा खुदखुशी कर जाएगा,
कलम तो  चलती रहेगी  परन्तु 
अक्षर फ़ीका पड़ जाएगा !!


Monday 8 December 2014

कुछ दिखा क्या ?

मेरी डूबी हुई नाव को और डूबाने वालों 
ज़रा देखो गौर से कितने तूफ़ान मेरी बाहों में ही पले बढ़े हैं, 
उसे बहार निकालने  को तू नहीं चाहिए बुज़दिल 
वो तूफ़ान  ही मजबूती से इसे कंधा दे रहें हैं 

मेरी चोटों पे हसने वालों 
मुड़कर ज़रा गौर से देखो ,
आज मरहम लगाने वाले 
मेरी चौखट पे कईं  खड़े हैं 

बाप के  पैसों पे उछलने वाले 
ओ बदकिरदार ,
देख , देख मुड़कर 
आज तेरी शान को कुचलते हुए 
हम खुशिओं के घर बना  रहें हैं !


मेरी साँसों को थामने का ज़ज्बा रखते हुए 
ऐ कातिल 
मुड़कर देख तू ज़रा 
तेरी आखिरी साँसों का हम जश्न मना  रहे हैं 

नर्क में भी तुझे जगह न मिले 
हम साथ में वो गीत गुनगुना रहें हैं !!







किसे कोसूँ

मैं ज़िंदा तो हूँ पर 
ज़िंदादिली सी नहीं लगती। 

कोई  खोता है किसी को 
जब कोई मर जाता है ,
मैने तो ज़िंदा ही 
खुदको मार दिया 

खो दिया इस दुनिया में खुदको 
जीतेजी अपनी साँसों  को  रोक दिया  

आज  यूँ तो वो सामने से गुज़रते हैं 
एहसास मेरे मन में वही उठते हैं ,

पर क्या ख़ूब ज़िन्दगी देखने को मिल रही है 
उसकी छाया भी मेरे वजूद को कुचल रही है 

वो जिंदा हैं, खुश हैं 
और मेरी हर एक साँस 
मेरे लिए बेड़ियाँ बना  रहीं हैं ,

मैं बुनता जा रहा हूँ एक जाल कोई ऐसा 
जिसका रास्ता ही नहीं सुलझने का ,
हर  उस मोड़ पर खुदको अकेला पा रहा हूँ 
कभी साथ जिनपे रहता था उनका 

क्या तमाशे देखने को मिल रहे हैं 
कभी जिनपे हँसा करते थे ,
आज वही रुला रहे हैं 

ये वक़्त के अंदाज़ भी निराले हैं
कभी जो साँस दे जाते थे
आज वही इसे थामने की बात करते हैं  ,

मेरी हर चोट से जो काँप जाते थे 
आज वही हर झकम हरा कर जाते  हैं ,


कसूर शायद उनका भी नहीं 
ये दौर ही कुछ ऐसा है 

जब 

मैं ज़िंदा तो हूँ पर 
ज़िंदादिली सी नहीं लगती। 











Sunday 6 April 2014

बेहिसाब ज़ज्बात

खोकर तुझे पाने से पेहेले
हम चल पड़े यूँ ही अकेले          

मेरी हिम्मत नहीं है कहने की
तेरे साथ अब दो पल रहने की

मुझे खत्म तो करना न था
पर आगे दृश्य धुंधला ही था

अश्क़ों को इन बहने दूँ
सागर भर मैं आज रो लूँ

हमदर्दी की तेरी चददर कंधे से हटा 
न सोचके क्यूँ मेरे हिस्से का प्यार बँटा

मैं चलता रहूँ रफ़्तार से
झूठी मुस्कान पहन कर

रिश्ते की माला तोड़ कर
उस धागे को छुपाकर सबसे

मुड़ न चाहूँ, मुड़ूँगा पीछे
घबराऊँगा न यादें बुलाने से
तेरे साथ क पलों को खोउंगा नहीं
खो जाउंगा सोच तेरी भोली आँखों में

तू जब-जब याद आएगी
मेरे दिल में कही तेरी बात घर कर जाएगी
मेरे जीने का सहारा
मेरे सपने नहीं, तेरी यादें ही बन पाएंगी ||

बह गया वक़्त

पिरो रहे थे लमहों को
जब धागों में यादों के

तब लमहों को थमना नहीं था
ज़िंदा रहना था अल्फ़ाज़ों को

क्यूँ आगया वक्त ऐसा
न रह पाया जो कल जैसा

कैसे लगने लगा वो कम
साँसों में ज़िन्दगी जो देता था
छूट गयी वो आँखें नम
प्यार का आइना जिनमें रहता था

काया पलट गई
इधर उधर यादें बिखर गई,

हर लमहा जो निकलता रहा
दर्द सीने में बढ़ाता गया,
फिर भी किसी कोने में दिल अपने
घर यादों का सजाता गया

भूलकर न भूले
वो लमहे सुहाने थे
वक़्त का दोष नहीं
किस्से खोखले ही पड़ जाने थे ||

Thursday 27 March 2014

काश...

कोई तो होता जिसे अपनी ज़िन्दगी कह सकते
जिसके साथ मिल खालीपन को बाँट सकते,
सह सकते हर चोट को अपने हिस्से की 
बाँट सकते हर कहानी पुराने किस्सों की |

जिसके लिए मेरी मुस्कुराहट माएने रखती
मेरे आसुओं की वजहों  से जिसे शिकायतें रहती,

कोई तो होता जिसे सुबह उठ मेरा ध्यान आता
जिसके दिमाग व लबों पे कुछ सुनकर मेरा नाम आता,
जिसके दिन की शुरुआत मुझसे होती
बात यहीं पे नहीं,
सोने से पेहेले मेरे ख्याल पे ही खत्म होती |

काश बना लेता कोई छोटी सी दुनिया मेरे साथ भी
कह सकती जिससे दिल के मैं हर जज़्बात  भी..

कोई तो होता जिसे  मेरी बातें लुभाती
जिसकी ज़िन्दगी में मैं महत्वपूर्ण जगह बना पाती,
डांट फटकार कर मुझे अगर मन करदेता कोई
उसकी डांट सुनकर भी उसके ही सीने से चिपक कर होती रोई|

मुददत सी हो गयी इन्तजार करते - करते
ख्वाबों के दिये दिल  में जलाए रखे,
अब तो लगता ही नहीं की कोई ऐसा बना होगा
जो मेरे लिए मानो मेरा खुदा होगा|

बीत जाएगा ये सफ़र कुछ इस तरह अकेले
की थम जाएगी साँसे तब दीदार उनका होगा,
छू लेगा मेरी रूह को वो
तब शायद मुझे अपनी मौत से ही प्यार होगा ||





Friday 21 March 2014

गुफ़्तगू अंधेरों से

बुझ गया दिया अभी
जिसने जलना सीखा ही था,
लौ ने जिसके दिए के
तेल में तैरके भीगा ही था । 

माचिस की तीली की चोट
अंग-अंग पे ऐसे लगी,
बहार निकलती हुई चोंच
अंदर खुद में सीमटती रही । 

रौशनी कि गुफ्तगू 
अँधेरे से शुरू हुई थी,
अँधेरे कि आहट से लेकिन
उम्मीद जलने कि छूट गयी थी । 

प्रकाश कुछ पलों का था
आइना गन्दा सा था,
धुल साफ़ करने क लिए
कपड़ा नहीं कोई मिला पड़ा वहाँ । 

वो कुछ पलों कि रोशनी भिखेरके जलता गया
मुस्कुरा के मुह चिढ़ा के
अँधेरे की खिल्ली उड़ा गया,

वो बुझ गया पल में मगर
वो जब तक जलता रहा,
थी रोशनी से हवाएं खिलखिलारही
जब उजाले के गीत वो गाता गया । 

बुझ गया दिया अभी
जिस्ने जलना सीखा ही था
लौ ने जिसकी जगमगाना
प्रेम करना सीखा  ही था ||







Wednesday 29 January 2014

Nirbhaya (निर्भया)

मेरे झकमों को देखकर हर देश का आदमी चौंका है 
फिर भी ना किसी ने आज इस हैवानियत को  रोका है,

है गर आक्रोश  इतना पलट दूँ आज दुनिया की काया को
कर दूँ ऐसे दरिंदों का खात्मा, उनकी रची हुई इस माया को  । 

होती अगर ना मैं  वो, होती मेरी जगह  तेरे घर की  स्त्री
क्या बैठा होता इतना चुप जितना  बेबस  है  तू  व्यक्ति अभी ?

सहम  जाती हूँ मैं आँखों को जब भी खोलती हूँ  
भूलना  चाहूँ जितना  भी ना उस भददे दृश्य को भूलती  हूँ । 

एक-एक अंग को कैसे उंन जानवरों ने ऐसे  नोचा है 
समझ  के कोई  खिलौना  मेरी हर साँस को झकझोड़ा है, 

दर्द से कर्राह रही , मदद कि भीख़ थी मांग रही 
उन निर्दयी  जानवरों से बचकर थी किसी तरह भाग रही ,

सिसक-सिसक थी रो रही रास्ते पे मैं पड़ी 
शर्म की चद्रदर ओढ़ने को हाथ फ़ैलाती रही 
क्युंकी ना पता था मुझको की सफ़ेद चददर ही पढ़ेगी ओढ़नी
ही पढ़ेगी ओढ़नी । । 

Tuesday 5 November 2013

Paristithiyaan ( परिस्तिथियाँ )

 आरज़ू  है  मेरी  तुझे  पाने की
 कश्मकश  से बाहर निकल सिक्के के दोनों  पहलू  जी  जाने  की,

 गरदिश ने मेरी मुझे परे रखा उस वक़्त से
 जब  आरंभ हो रहा  था  हर ज़र्रे का मिलाना मुझे तुझसे ,

बचपंन  में जब  कभी  झाँक  कर देखा
अधूरेपन ने  सदैव  हमेशा  मेरा  मन कचोटा,

थे  शायद  मेरे  हिस्से में जब  हसने खेलने के दिन 
,तब परिश्रम करना पड़ रहा  था मुझे, जो था मुश्किल,

जब परिश्रम का अर्थ लिखना पढ़ना मेरे मित्रगण  का हुआ करता था 
मेरे  जीवन  का  अनमोल  हिस्सा  तब दो  पैसे  माँगने में  बीतता  था ,

किसमत में  शायद  मेरी  था  नहीं  कलम  पकड़ना 
तभी आज छुप  के  दीवारों  से  देखता हूँ  अपना  ही  सपना ,

सिक्के  के  दोनों  पहलुओं  से  परिचित तो  मैं अभी  भी  नहीं 
पर जिस  एक  पहलू  को जिया  उस्में  ज़िन्दगी का कड़वा रस ही पिया,

गुज़रता हुआ ये वक़्त बारिश कि बूंदो की  तरह  कुछ  समय  में  थम  जाएगा 
बचपन  के साथ  मेरा  आने  वाला  कल गरजता  हुआ  मुझपे  अनगिनत  झकम  कर   जाएगा,

कलम  पकड़ना  अफ़सोस  मेरा  स्वप्न  ही  रह  जाएगा
मेरे  स्वप्नों  की कल्पना  को  भसम कर जाएगा  | |      

Monday 9 September 2013

Bebasi (बेबसी )

इन  सूनी - सूनी   रातों  में  कोई  आहट  मुझसे  कहती  है
भीड़  में  भी  क्यों  तू  इतनी  तन्हा  रहती है ,

एक  बार  तो  ए  पागल तू  भी  ज़िन्दगी  का  मीठा  रस   पी
ना  आने  दे   अश्कों  को  आँखों में , हर ख़ुशी को तू मन से जी ,

करना  सीख  सामना उनका जिन्होंने  तनहा छोड़ा तुझको
तू दिखा दे  दुनिया को है हसने  के पल  बाकी अभी कुछ तो ,

फिर कर इन्तेजार उस सुबह का जब सूरज पाश्चिम  से  निकल  जाएगा
तेरी ज़िन्दगी का हर  एक गम उस शाम उसके  साथ ढल जाएगा ,

उस आहट  के ऐसा कहने पे आँखे  मेरी भी चौकी
पर फिर भी मन में एक नई  उम्मीद, एक नई  उम्मीद की  लौ जली ,

 क्या  जाता है एक बार ज़िन्दगी को आजमाने में
होगा एक दिन भी तो ऐसा जो न होगा हर एक दिन के  जैसा,


उस एक दिन के लिए जी  लूँगी  मै  हर पल को
भूल  के सारे कांटो को ,
ठोकर से भरे रास्तों  को
उस एक दिन के लिए जी  लूँगी  मै  हर पल को ।